Story in hindi fate
भाग्य की कहानी
भिवानी के राजा विद्रोह सिंह एक अच्छे घराने मैं पैदा हुए थे, लेकिन वो घर मैं सबसे छोटे होने के कारण से , उन्हें कभी भी राज पाठ नहीं मिल पाया था. जब पिता के ही हक़ में राजगद्दी नहीं थी तब विद्रोह सिंह के अधिकार की तो बात ही दूर थी. उस वक्त भिवानी की राजगद्दी पर भीम सिंह विराजमान थे जो विद्रोह सिंह के बड़े भाई थे.
विद्रोह सिंह जालौर के किले में थे पर पारिवारिक कलह और पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह के षड्यंत्रों के चलते भीम सिंह ने विद्रोह सिंह को जालौर किले से बेदखल करने हेतु अपने प्रधान सेनापति देवराज के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेज जालौर किले को घेर रखा था. वर्षो से भिवानी की सेना से घिरे रहने के चलते विद्रोह सिंह आर्थिक तौर पर तंगहाली में गुजर रहे थे,
धनाभाव के चलते किले में सुरक्षा तो छोड़िये खाने के लिए अन्न की भी भयंकर कमी पड़ जाया करती थी. ऐसी हालत में हर बार विद्रोह सिंह के मित्र कवि जुगतीदान बारहट, बणसूरी दुश्मन सेना के मध्य में निकलकर अर्थ की व्यवस्था करते थे. एक बार तो जब बारहट जी के धन की व्यवस्था के लिए सभी रास्ते बंद हो गये तब कवि जुगतीदान बारहट ने अपनी पुत्रवधू के गहने चुपके से निकाल बेचकर राजा विद्रोह सिंह की आर्थिक सहायता की.
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जिसे विद्रोह सिंह कभी नहीं भूले. उस दिन वर्षों के सैनिक घेरे के चलते किले में धन व खाद्य सामग्री का अभाव पड़ गया था, किले में मौजूद हर व्यक्ति चार पांच दिन बाद खाद्य सामग्री के ख़त्म होने के बाद भूखे रहने वाली परिस्थिति भांप कर व्याकुल था. विद्रोह सिंह को भी अब धन की व्यवस्था करने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, सभी परिस्थियों पर गहन चिंतन मनन करने के बाद विद्रोह सिंह ने मन ही मन अपने बड़े भाई भिवानी के राजा भीमसिंह के सेनापति के आगे आत्मसमर्पण करने का निर्णय कर अपने साथियों से विचार विमर्श किया.
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उनके साथी भी ऐसी विकट परिस्थिति में आत्म समर्पण करने के ही पक्ष में थे आखिर आत्म समर्पण भी बड़े भाई की सेना के सामने ही करना था अत: स्वाभिमान आहत होने वाली बात भी इतनी बड़ी नहीं थी. कोई सेना होती तो आत्म समर्पण करना कुल परम्परा के खिलाफ होता, स्वाभिमान आहत होता. पर यहाँ तो अपने ही बड़े भाई की सेना के आगे समर्पण करना था. फिर भी वहां मौजूद नाथ सम्प्रदाय के एक साधू विश्वनाथ आत्म समर्पण के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने विद्रोह सिंह को आत्म समपर्ण करने के लिए चार दिन इन्तजार करने का कहते हुए आश्वस्त किया कि आने वाले चार दिनों में परिस्थितियां आपके अनुकूल होगी. एक साधू के वचन पर भरोसा कर विद्रोह सिंह ने आत्म समर्पण करने के लिए चार दिन इन्तजार करने का निश्चय किया. चार दिन बाद अचानक ऐसी परिस्थियाँ बदली कि, जो विद्रोह सिंह वर्षों से जालौर किले को प्रकारेण बचाने को जूझ रहा था.
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उसे भिवानी राज्य के राजा बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया. उन्हीं चार दिन बाद भिवानी सेनापति ने जालौर किले में उपस्थित होकर विद्रोह सिंह को भिवानी नरेश भीम सिंह की मृत्यु का समाचार सुनाते हुए अनुरोध किया कि भीम सिंह के बाद आप ही राज्य के उत्तराधिकारी है अत: भिवानी चलिए और राजगद्दी पर बैठिये. चूँकि राजा भीम सिंह के कोई संतान नहीं थी और आपकी गृह कलह में भिवानी राजपरिवार के लगभग सदस्य मारे जा चुके थे अत: जीवित बचे सदस्यों में विद्रोह सिंह ही भिवानी की राजगद्दी के हक़दार बन गए. एक दिन पहले तक जिस बड़े भाई की सेना से दुश्मन सेना की भांति टक्कर ले रहे थे वही विद्रोह सिंह महाराजा भीम सिंह की मृत्यु का शोक मना छोटा भाई होने का कर्तव्य निभा रहे थे. जिसे विद्रोह सिंह के वध के लिए वर्षों से जालौर किले की घेराबद्नी के लिए तैनात किया गया था भाग्य का खेल देखिये कि उसी सेना का सेनापति देवराज जालौर किले में विद्रोह सिंह से भिवानी चलकर राजगद्दी पर बैठने का आग्रह कर रहा था और विद्रोह सिंह उसे कह रहे थे.
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मैं तुझ पर कैसे भरोसा करूँ और कल तक विद्रोह, वही भिवानी का सेनापति उस दिन विद्रोह सिंह को सुरक्षा देने के वचन निभाने का भरोसा दिलाने के लिए कसमें खा रहा था. आखिर सेनापति ने विद्रोह सिंह के कहे अनुसार भिवानी के राज्य के कुछ प्रभावशाली सामंतों को बुलाया और उनके द्वारा सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करने व उनका समर्थन मिलने के बाद विद्रोह सिंह ने भिवानी आकर राज्य की गद्दी संभाली व 50 वर्ष तक राज्य किया. जो व्यक्ति भिवानी जैसे राज्य के ख़्वाब देखना तो दूर अपनी छोटी सी रियासत व जालौर किले को अपने नियंत्रण में रखने को जूझ रहा था उसका भाग्य देखिये कि उसका वह किला तो बचा ही साथ ही परिस्थितियों द्वारा ली गयी करवट ने उसे भिवानी राज्य का महाराजा बना दिया. तभी तो जो भाग्य मैं होता है, हर इंसान को आखिर मैं वही प्राप्त होता है.
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