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निस्चन ऋषि की कहानी
बहुत साल पुरानी बात है जब राजा हरीशचंद्र का राज था. वो बड़े ही प्रभावशाली राजा हुआ करते थे. उनके सभी पुर्त और पुत्रिया भी उनके नक्से कदम पर ही चले. राजा हरीशचंद्र अपने पुत्रों को देखकर स्वयं प्रसन्न रहा करते थे. एक दिन राजा हरीशचंद्र अपने पुत्र पुत्रियों के साथ वन के लिए निकले. राजा रानी तो एक सरोवर के निकट विश्राम के लिए बैठ गए लेकिन उनके पुत्र पुत्रियां परस्पर घूमते टहलते दूर जा निकले.
असमय ही राजकुमारी ने मिट्टी के टीले में दो चमकदार मणियां देखीं. उस मणि के निकट आई. नजदीक देखने पर भी वह चमकती वस्तु को समझ न पाई. तब उसने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का प्रयत्न्न किया लेकिन मणि निकली नहीं, अपितु वहां से खून बहने लगा. मणि से खून टपकते देख उसके भाई बहन घबरा गए. वे सभी अपने पिता के पास आए और पूरी बात कह सुनाई. महाराजा हरीशचंद्र अपनी पत्नी के साथ उस स्थान पर पहुंचे और देखते हुए दुखी मन से बोले बेटी.
तुमने बड़ा पाप कर डाला. यह निस्चन ऋषि हैं जिनकी तुमने आंख फोड़ दी है. यह सुनते ही राजकुमारी रो पड़ी. उसका शरीर कांपने लगा. टूटते हुए स्वर में उसने कहा मेरी जानकारी में नहीं था कि यह महर्षि बैठे हुए हैं. मैंने बड़ा अनर्थ कर डाला. यह कहकर वह फिर से फूट फूटकर रो पड़ी. हां पुत्री तुमसे अपराध हो गया है. महर्षि निस्चन यहां पर तपस्या कर रहे थे. आंधी तूफान और वर्षा के कारण इनके चारों तरफ मिट्टी का टीला बन गया है. इसी कारण तुम्हारी दृष्टि को दोष हो गया. मात्र दो आंखें चमकती हुई दिखाई दीं.
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अब क्या होगा. इतने में निस्चन ऋषि के कराहने का स्वर भी सुनाई दिया. स्वर सुनकर राजकुमारी ने तय किया मैं इस पाप का प्रायश्चित करके इस हानि की क्षतिपूर्ति करूंगी. तुम्हारे प्रायश्चित से ऋषि की आंखें तो वापस नहीं आएंगी. पिता राजा हरीशचंद्र ने कहा. राजकुमारी बोली मैं इनकी आंखें बनूंगी. क्या कह रही हो बेटी. मैं उचित कह रही हूं पिताजी. मैं ऋषिदेव की आंख ही बनूंगी. मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती.
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न्याय नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा व विश्व का कल्याण है, मैंने यही सब तो सीखा है. मैं निस्चन ऋषि से विवाह करूंगी और अपने जीवनपर्यंत उनकी आंख बनकर सेवा करूंगी. लेकिन बेटी. राजा हरीशचंद्र ने कहा. राजकुमारी बोली पूज्य पिताजी. यहां पात्रता और योग्यता का प्रश्न नहीं है. मुझे तो सहर्ष प्रायश्चित करना है. मैं इस कार्य को धर्म समझकर तपस्या के माध्यम से आनंदपूर्वक पूर्ण करके रहूंगी. मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें. बेटी की जिद के समक्ष राजा हरीशचंद्र की एक न चली. वे विवश थे अतएव विवाह की तैयारी में जुट गए. महर्षि निस्चन के साथ बेटी का विवाह हुआ. राजकुमारी की इस अद्भुत त्याग भावना को देखकर देवगण भी अत्यंत प्रसन्न हुए. प्रायश्चित व सेवाभावना के कारण राजकुमारी का नाम निस्चन ऋषि ने स्वेता रख दिया. इसी कारण से वो आज भी दुनिया मैं अपने नारी गुणों के कारण बहुत ही पूजनीय है.
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